तोरई खेती के लिए मौसम
तोरई के उत्पादन के लिए ज़्यादा मौसम की अपेक्षा, खरीफ मौसम अधिक उपयुक्त होता है, समशी तोष्ण जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है, इसके पौधों को अच्छे से विकास करने के लिए शुष्क और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है, अधिक ठंडी जलवायु इसके पौधे सहन नहीं कर पाते है, गर्मियों के मौसम में बेलों की वृद्धि, पुष्पन तथा फलन अधिक होता है, खरीफ सीजन तोरई की खेती में बीज की गुणवत्ता व फल भी अधिक प्राप्त होता है। तोरई के पौधे सामान्य तापमान में अच्छे से अंकुरित होते है !
कितने दिन में तैयार होती है-तोरई
तोरई की कुछ किस्म जैसे घिया तोरई, पूसा नसदार किस्म दूसरे शहरों तक पहुंचाने में फल कम घिसते हैं, तोरई की इन किस्मों की मुम्बंई, दिल्ली जैसे महानगरों में ज्यादा पसंद की जाती है, तोरई की इन उन्नत किस्मो की बीज रोपाई के बाद 65 से 75 दिन में फल मिलने शुरू हो जाते है ….!
बोई कब जाती है तोरी
तोरई की खेती दोनों ऋतुओं में की जाती हैं! किसान ग्रीष्मकालीन सीजन तोरई की बुवाई मार्च में कर सकते हैं. साथ ही इसकी वर्षाकालीन सीजन फसल को जून से जुलाई में बोई जा सकती हैं, तोरई की अगेती खेती जो अधिक आमदनी देती है, उसे करने के लिए पॉली हाउस तकनीक में सर्दियों के मौसम में भी तोरई की नर्सरी तैयार करके की जा सकती है, पहले तोरई की पौध तैयार की जाती है और फिर मुख्य खेत में जड़ों को बिना क्षति पहुंचाए रोपण किया जाता है, तोरई की बुवाई के लिए नाली विधि ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है, इसलिए जहां तक तक हो इसकी बुवाई के लिए नाली विधि का ही प्रयोग करें !
तोरई की अगेती खेती
तोरई की अगेती खेती के लिए पॉली हाउस विधि का प्रयोग
कद्दूवर्गीय सब्जियां लौकी, तोरई, पेठा, खीरा, टिण्डा, करेला आदि की अगेती फसल तैयार करने के लिए पॉली हाउस में जनवरी में झोपड़ी के आकार का पॉली हाउस बनाकर पौध तैयार की जा सकती हैं,पौधे तैयार करने के लिए 10 x 15 से.मी. आकार की पॉलीथीन की थैलियों में मिट्टी, बालू व गोबर की खाद भरकर जल निकास की व्यवस्था के लिए सुजे की सहायता से छेद कर सकते हैं। बाद में इन थैलियों में लगभग 1 से.मी. की गहराई पर बीज बुवाई करके बालू की पतली परत बिछा लें तथा हजारे की सहायता से पानी लगाएं। लगभग 25-30 सप्ताह में पौधे खेत में लगाने के योग्य हो जाते हैं, जब फरवरी माह में पाला पड़ने का डर समाप्त हो जाए तो पॉलीथीन की थैली को ब्लेड से काटकर पौधे की मिट्टी के साथ खेत में बनी नालियों की मेंढ़ पर रोपाई करके पानी दे !
उपयुक्त मिट्टी
तोरई की खेती ग्रीष्मकालीन और वर्षाकालीन दोनों ही मौसम की जाती है, इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है, अधिक ठण्ड जलवायु इसके पौधे सहन नहीं कर पाते है, शुष्क और आर्द्र जलवायु में इसके पौधों का विकास अच्छे से होता है, तोरई की अच्छी फसल के लिए कार्बनिक पदार्थो से युक्त उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता होती है, इसकी खेती में उचित जल निकासी वाली भूमि की जरूरत होती है !
बुवाई का तरीका
बुवाई – बीज एवं पौधों की रोपाई दोनों ही विधि से की जाती है। तोरई के एक हेक्टेयर के खेत में दो से तीन किलो बीज की आवश्यकता होती है, बीजो की रोपाई के लिए खेत में धौरेनुमा क्यारियों को तैयार कर लिया जाता है, तोरई के बीजों की रोपाई मेड के अंदर डेढ़ से दो फीट दूरी रखते हुए की जाती है, ताकि इससे पौधे भूमि की सतह पर अच्छे से फैल सके, तैयार की गई इन क्यारियों के मध्य 2 से 3 मीटर तथा पौधे से पौधे के मध्म 75 सेमी. की दूरी रखनी चाहिए, इसके बीजों की रोपाई खरीफ के मौसम में की जाती है, यदि आप इसकी फसल बारिश के मौसम में प्राप्त करना चाहते है, तो उसके लिए आपको बीजों की रोपाई जनवरी के माह में करनी होती है, तथा खरीफ के मौसम में फसल प्राप्त करने के लिए बीजों की रोपाई जून के महीने में की जाती है….!
उपचार
तोरई के बीजों की बुवाई से पहले बीजों का उपचार करना अति आवश्यक होता है, बीज उपचार से फसल में होने वालें रोगों की संभावना कम होती है एवं बीजों का अंकुरण भी अच्छे से होता है। तोरई के बीजों को थाइरम नामक फफुदनाशी 2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम से उपचारित करना चाहिए, बीजों के शीघ्र अंकुरण के लिए बीजों को बुवाई से पूर्व एक दिन के लिए पानी में भिगोना चाहिए तथा इसके पश्चात बोरी या टाट में लपेट कर किसी गर्म जगह पर रखना चाहिए, इससे बीजों को जल्द अंकुरण में मदद मिलती है।
खाद एवं उर्वरक
तोरई की खेती करने से पहले मृदा एवं जल का परीक्षण किसान भाई को जरूर करवा लेना चाहिए, मृदा परीक्षण से खेत में पोषक तत्वों की कमी का पता चल जाता है, एवं किसान भाई परीक्षण रिपोर्ट के हिसाब से खाद व उर्वरक का प्रयोग कर उचित पैदावार ले सकता है, खाद व उर्वरक के मामले में साधारण भूमि में 18-20 टन तक गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए, तोरई को 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35- 40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है, नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा के समय ही समान रूप से मिट्टी में मिला देना चाहिए, नाइट्रोजन की बची हुई शेष मात्रा 40 दिन बाद पौधों की जड़ों के पास डालकर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए !
तोरई की खेती नगदी फसल के रूप की जाती है, इसकी मांग गर्मी के दिनों अधिक रहती है, गर्मी के दिनों में किसानों को इसकी खेती से अधिक मुनाफा भी मिलता है, तोरई का उत्पादन तोरई की उन्नत किस्मों पर निर्भर करती है, तोरई की अच्छी पैदावार लेने के लिए किसान भाई तोरई की अच्छी किस्म का ही चयन करें, किसान भाई इन उन्नत किस्मों का प्रयोग कर अधिक पैदावार ले सकते है, वैसे तो तोरई की पूसा चिकनी, पूसा स्नेहा, पूसा सुप्रिया, फुले प्रजतका आदि को उन्नत किस्मों में शामिल किया गया है। लेकिन घिया तोरई, पूसा नसदान, सरपुतिया, आदि किस्में का प्रयोग किसानों द्वारा अधिक किया जाता है, इन उन्नत किस्मो की बीज रोपाई के बाद 75- 80 दिन में फल मिलने शुरू हो जाते है, यह किस्में 100 – 120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार होती है !
KhetiKare
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